वृन्दावन श्री राधा कृष्ण की नित्य क्रीडा स्थली है । इस मायातीत भूमि का नाम वृन्दावन होने के अनेक कारण है, द्वापरयुग में श्री कृष्ण के अवतार काल में असुरों से श्रांत गोपसमूह ने यह निर्णय किया की अब हम सबकी सुरक्षा हेतु गोकुल को त्यागकर यमुना पार श्री वृन्दावन नामक प्रदेश में वास करेंगे –
वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् ।
गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम् ॥
- श्रीमद्भागवत (10.11.28)
“नन्देश्वर तथा महावन के मध्य वृन्दावन नामक एक स्थान है । यह स्थान अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि इसमें गौवों तथा अन्य पशुओं के लिए रसीली घास, पौधे तथा लताएँ हैं । वहाँ सुन्दर वन तथा ऊँचे पर्वत हैं और वह स्थान गोपों, गोपियों तथा हमारे पशुओं के सुख के लिए सारी सुविधाओं से युक्त है ।”
राधाषोडशनाम्नां च वृन्दानाम श्रुतौ श्रुतम् ।
तस्याः क्रीड़ावनं रम्यं तेन वृन्दा वनम् स्मृतम् ॥
- ब्रह्मवैवर्त पुराण
“श्री राधा रानी के सहस्र नामों में श्रेष्ठ हैं षोडश नाम’ और उन षोडश नामों में उनका एक पवित्र नाम है – वृन्दा, जो कि श्रुति में भी सुना गया है, तो उन ‘वृन्दा’ नाम धारिणी श्री राधा का यह रमणीय क्रीडा वन है, इसलिए इसे ‘वृन्दावन’ की संज्ञा दी गयी है ।”
हमारी श्रीजी वृन्दावन की अधिष्ठात्री शक्ति हैं, अतः षोडश नामावली में उनका एक नाम वृन्दावनी भी है, मत्स्यपुराण में तो ऐसा भी उल्लेख प्राप्त होता है –
“राधा वृन्दावनेवने”
अर्थात् राधा ही वृन्दावन हैं, वृन्दावन ही राधा हैं, परस्पर अभिन्न हैं ये दोनों । श्रीकृष्ण तो इस अखिल चिदानंद रसों से आप्लावित मधुर वृन्दावन को छोड़कर कदापि अन्यत्र गमन ही नहीं करते हैं –
“वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति”
- पद्म पुराण
अथवा
नारद उवाच –
तस्मिन वृन्दावने पुण्यं गोविन्दस्य निकेतनम् ।
तत्सेवकसमाकीर्णं तत्रैव स्थीयते मया ॥
- स्कन्ध पुराण
“श्री गोविन्द का निवास स्थान पुण्य क्षेत्र श्री वृंदावन है, जहाँ अनेक सेवकगण सेवारत हैं, वहीँ मुझे निवास प्राप्त हो ।”
अथवा
वृन्दावने च गोविन्दं ये पश्यन्ति वसुन्धरे ।
न ते यमपुरं यान्ति यान्ति पुण्यकृतां गतिम् ॥
- आदि वराह पुराण
“जो भक्त गोविन्द का श्री वृन्दावन में दर्शन करते हैं, वे नर्क नहीं जाते, उन पुण्यात्माओं की सद्गति होती है ।”
श्री वृन्दावन मायातीत, कालातीत धाम है । ब्रज रसिक शिरोमणि श्री हरिराम व्यास जी ने कहा –
वृन्दावन की शोभा देखत मेरे नैन सिरात ।
कुँज निकुँज पुँज सुख बरसत हरषत सब के गात ।
राधा मोहन के निजमन्दिर महाप्रलय नहि जात ।
ब्रह्मा ते उपज्यो न अखंडित कबहूँ नाहि नसात ।
फणि पर रवितर नहि विराट महँ नहिं सन्ध्या नहिं प्रात ।
माया काल रहित नित नूतन सदा फूल फल पात ।
निर्गुण सगुण ब्रह्म ते न्यारो विहरत सदा सुहात ।
‘व्यास’ विलास रास अद्भुत गति निगम अगोचर बात |
यह सम्पूर्ण वृन्दावन हमारे श्यामाश्याम का क्रीड़ा स्थल है, उनके चरणों से चिन्हित है ।
वेणुगीत से भी तो ऐसा ही स्पष्ट होता है –
वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं ।
यद् देवकी सुत पदाम्बुजलब्धलक्ष्मि ॥
- श्रीमद्भागवत (10.21.10)
(एक गोपवधूटी दूसरी से कह रही है) “अरी सखि ! यह वृन्दावन वैकुण्ठ से भी कहीं अधिक अपनी कीर्ति को व्यापक बना रहा है क्योंकि यशोदानंदन श्रीकृष्ण के चरण कमलों के चिन्हों को अपने अंक में धारण करके अत्यंत सुशोभित हो रहा है, अर्थात् यहाँ का कण-कण हमारे कन्हैया के श्री चरणों से चिन्हित है, जहाँ आज भी वह नित्य नूतन लीला कर रहा है ।”
श्री वृन्दावनधाम-रसस्वरूप, प्रेमस्वरूप, अप्रतिम इस चिन्मय धाम का “माहात्म्य निश्चित ही अत्यंत माधुर्यमय, रहस्यमय व अनिर्वचनीय होगा और ऐसा है तभी तो सुरगुरु बृहस्पति के शिष्य, यादवराज सभा के मंत्री, श्रीकृष्ण के परम प्रिय सखा – उद्धव नाम से सुशोभित होने वाले को भी आवश्यकता पड़ गई वृन्दारण्य का तरु, गुल्म, लता, तृण, पत्र-पाषाण बनने की –
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् ।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥
- श्रीमद्भागवत (10.47.61)
इतना ही नहीं सृष्टिकर्ता भगवान् नारायण के नाभिकमल से समुद्भूत ब्रह्मा जी तो यहाँ तक कह रहे हैं –“इस वृन्दाटवी में किसी भी योनि पशु-पक्षी, कीट-पतंग, जड़-वृक्ष आदि में मेरा जन्म हो जाय । यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात होगी।”
तद् भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां ।
यद् गोकुलेऽपि कतमाङ्गिरजोऽभिषेकम् ।
- श्रीमद्भागवत (10.14.34)
वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा ।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ॥
- श्रीमद्भागवत माहात्म्य (1.61)
प्रेम के शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य – इन सभी रसों का साक्षात्स्वरूप, धन्य है ये 20 कोसीय वृन्दावन ।
यहाँ का वास उद्धव ने माँगा, ब्रह्मा ने माँगा, शिवजी तो यहाँ जमकर आसन लगाये बैठे हैं । कहीं गोपीश्वर बनकर तो कहीं ब्रजेश्वर, कहीं आसेश्वर, कहीं चक्रेश्वर ।
क्यों न हो 20 कोस का यह क्षेत्र जो वृन्दावन की संज्ञा से शोभित है, स्वयं कृष्ण-बलराम को भी बड़ा प्रिय है –
वृन्दावनं गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च ।
वीक्ष्यासीदुत्तमा प्रीती राममाधवयोर्नृप ॥
- श्रीमद्भागवत (10.11.36)
ब्रजवासी गणों का जब महावन से वृन्दावन गमन हुआ तो वृन्दावन का हरा-भरा वन, अत्यंत मनोहर गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी के सुन्दर-सुन्दर पुलिनों को देखकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम के हृदय में उत्तम प्रीति का उदय हुआ । अर्थात् उनके मन को यह बड़ा ही प्रिय लगा।
जिस समय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रार्थना की प्रभु से भूतल पर आने की, तो लाल जी प्रियाजी से बोले – आपके बिना तो किसी भी लीला की सिद्धि संभव नहीं, अतः आप भी पधारें, तो स्पष्ट मना कर दिया श्रीजी ने । कारण स्वयं बताते हुए –
यत्र वृन्दावनं नास्ति यत्र नो यमुना नदी ।
यत्र गोवर्द्धनो नास्ति तत्र मे न मनः सुखम् ॥
- गर्ग संहिता, गोलोक खण्ड (3.32)
जहाँ वृन्दावन न हो, यमुना न हो, गोवर्धन गिरि न हो, भला वहाँ मेरे मन को सुख कहाँ? तब श्री ठाकुर जी ने कहा –
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् |
गोवर्द्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥
- गर्ग संहिता, गोलोक खण्ड (3.33)
नित्यधाम से 84 कोस ब्रजभूमि, गोवर्द्धन पर्वत, श्री यमुना जी को इस धरातल पर भेजा । श्री वृन्दावन केवल तीर्थ ही नहीं, भगवान् का निजधाम या निजगृह ही नहीं अपितु –
वृन्दा विपिनरम्याय भगवद्वासहेतवे ।
परमाह्वादरूपाय वैष्णवाय नमो नमः ॥
- पद्म पुराण
ये तो श्री भगवान् के परम वैष्णव हैं । बड़े रमणीक वन हैं । भगवान् के पृथ्वी में अवतार का कारण हैं, परम आह्लादमय हैं, इन्हें केवल तीर्थ मान लेना या तीर्थ की दृष्टि से देखना, इनका अपमान होगा । वैसे भी श्रीकृष्ण और उनका धाम, स्वरुपतः अभिन्न हैं और उसमें भी फिर ये श्री वृन्दावन धन्य है । धन्य है जहाँ की अधिष्ठात्री स्वयं श्री लाड़ली जी हैं ।