कृपा की ना होती जो आदत तुम्हारी।
तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।
ओ दोनों के दिल में जगह तुम न पाते।
तो किस दिल में होती हिफाजत तुम्हारी।
न मुल्जिम ही होते न तुम होते हाकिम।
न घर-घर में होती इबादत तुम्हारी।
तुम्हारी उल्फ़त के दृग ‘बिन्दु’ हैं वे।
तुम्हें सौंपते है अमानत तुम्हारी।